Tuesday, March 23, 2010

"""EVENING"




तरनी का तेज मद्धिम पड़ता जा रहा है,
शने-शने यह रक्तवर्ण होता जा रहा है.

चहुँ दिशी लालिमा छाये जा रही है,
अवनी पर सांझ की बेला आ रही है,

धेनु भी कानन से भागती आ रही है,
मनो ग्वालों को निज निकेत ला रही है,
अस्वत्थ तरु में बने हैं कोटर और नीद,
विहंगो की डालियों पर लगी है भीड़,

विहंग व्योम में भी उड़े जा रहे हैं,
निज शावकों हेतू दाना वो ला रहें हैं,


सरोवर सलिल भी रक्तवर्ण हो आया है,
मानो वारि-मुकुर में रवि आनन् देखने आया है,

नाविक निज नौका को कगार पर ला रहा है,
जलोर्मी की आभा देख मोंद-गान गा रहा है,

साराश की अठखेलियों का दृश्य ही न्यारा है,
सांझ का ये मंज़र देखो ये कितना प्यारा है,



दिवाकर छातिज में मगन्हो गया है,
शनै-शनै तिमिर भी सघन हो गया है,

पुरवाई पवन शीतलता PILAAYE जा रही है,
देवालयों से संख की धुन भी आ रही है,

शशि सितारों सह शून्य में आया है,
रजनी में “”SOM”” सोम सुधा बरसाने आया है.







WRITER-SOMVEER-KHATANA-B.C.A(2ND YEAR) MO-9549400943
"I LIKE NETURAL BEAUTY OF EVENING"



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