मानव हूँ मै अरमान लिए जिए जा रहा हूँ,
मंजिल दूर है फिर भी दस्तक दिए जा रहा हूँ,
पुष्पों पर सहजता से चल जाता हूँ,
पर मनुज हूँ सूलों में भी मार्ग बनता हूँ,
शूलो में ही गुलाब खिला करते हैं,
ये सूल ही इनकी हिफाज़त किया करते हैं,
पथ में घोर तिमिर छाया हुआ है,
साथ में तूफ़ान भी आया हुआ है,
ये झन्झा भी मुघे भटकाएगी,
धीरज भी मेरा आजमाएगी,
वहा वक़्त भी मेरा आया है,
पथ प्रस्तर भी टकराया है,
मानव हूँ ना डरूंगा में,
गिरकर उठकर भी लडूंगा मै,
मै हार नहीं यूं मानूंगा,
तूफ़ान से भी सीना तनुंगा,
कभी ये तूफ़ान भी पड़ेगा मद्धिम,
मेरी मंजिल भी आएगी स्वर्णिम,
में यूं ही लड़ता जाऊँगा ,
ना अपनी पीठ दिखाऊंगा,
अनवरत करूंगा में युद्ध यहीं,
मरना मन्जूर पर हटना नहीं,
मुघसे लड़ते-लड़ते ये बाधा भी घबराएगी,
"SOM" पूर्ण यकीं है मुझको मंजिल की दहलीज़ तो आएगी
(मेरा एक छोटा सा प्रयास)
WRITER-SOMVEER-KHATANA(B.C.A)
Tuesday, March 16, 2010
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